कृष्ण कुमार, चूड़ी बाज़ार में लड़की, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रकशान वर्ष:2014, पृष्ठ:146, मूल्य:तीन सौ रुपया
कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘चूड़ी बाज़ार में लड़की’ हर लिहाज से एक अध्यापक की पुस्तक है.अमूमन समाजशास्त्र,समाजविज्ञान या साहित्य के क्षेत्रों में सक्रिय अध्यापक जब किताब लिखते हैं तो प्रायः उनकी कक्षाओं की स्मृति उसमें नहीं रहती.कक्षा का महत्त्व छात्रों के लिए ही है और अध्यापक की भूमिका उनमें ज्ञानदाता के अलावा और कुछ नहीं, इस समझ को विख्यात अध्यापकों द्वारा लिखी गई किताबें भी पुष्ट ही करती हैं.
यह पुस्तक कृष्ण कुमार और उनकी विद्यार्थोयों की फीरोजाबाद की यात्रा के अनुभवों का परिणाम है जिसमें उन्होंने कांच उद्योग के भीषण यथार्थ का सामना किया.चूड़ी कांच-द्योग का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक उत्पाद है.यह भारतीय स्त्री की पहचान ही माना जाता रहा है.कृष्ण कुमार इस पुस्तक में चूड़ी के जन्म-स्थल से सामना के बाद उनकी विद्यार्थियों और खुद उनके भीतर हुई उथल-पुथल के वर्णन और फिर उसके विश्लेषण के सहारे समझने की कोशिश करते हैं कि खुद उनके बनने की क्या प्रक्रिया रही है. यात्रा का यह अनुभव एक शैक्षिक और ज्ञानात्मक अनुभव में कैसे बदल सकता है,वे इसे समझने का प्रयास करते हैं.
कृष्ण कुमार के अनुसार यह पुस्तक उनके “वैचारिक जीवन के, जिसके केंद्र में शिक्षा रही है,पुनर्योजन की द्योतक भी है.”वे लिखते हैं,“शिक्षा के मूल में सीखने की संकल्पना है जिसकी गवेषणा एक शिक्षक के नाते मेरे जीवन की धुरी रही है.हजारों लड़कियों को पढ़ाकर मैं यह जानने में असमर्थ रहा आय़ा था कि वे स्त्री के रूप में जीना कैसे सीखती हैं.मुझसे तो वे पाठ्यक्रम में दी गई बातें ही वर्ष-दर-वर्ष सीखती आई थीं और इन बातों में भारतीय नारी की तरह जीने की शिक्षा नहीं थी.” आख़िरी वाक्य सामाजिक यथार्थ के सामने शिक्षा की असहायता और अपर्याप्तता की ओर संकेत करता है.लडकियाँ आखिरकार शिक्षा की तमाम जद्दोजहद के बावजूद भारतीय स्त्री के तौर पर खुद को गढ़ती हैं,इसका तीखा अहसास फीरोज़ाबाद के चूड़ी उद्योग का साक्षात्कार करके उसे एक शैक्षिक अनुभव में तब्दील करने की कक्षा के संघर्ष के दौरान होता है.इससे मात्र छात्राएँ नहीं,अध्यापक भी गुजरता है. यह संघर्ष उसे बाध्य करता है कि वह खुद अपनी ज़िंदगी में लड़की के बनने की प्रक्रिया से उसकी अबतक की अनभिज्ञता या उदासीनता की परीक्षा करे.
लड़की होना एक असाधारण अनुभव है और लड़के के साथ साझेदारी की सारी संभावनाओं के बावजूद लडकी के घर, सड़क,खेल का मैदान, कक्षा,आदि हर स्थल को समान ढंग इस्तेमाल और हासिल करने की कठिनाई का वर्णन लेखक ने विस्तार से किया है. जिस तरह जाति द्वारा विभक्त सामाजिक जीवन की संवेदना बिना जगाए नहीं जगती, वैसा ही कुछ जेंडर की संवेदना के बारे में कहा जा सकता है.
‘समता का मिथक,भिन्नता के ध्रुव’नामक अध्याय में कृष्ण कुमार बड़ी तफसील में इसका विश्लेषण करते हैं कि किस प्रकार और क्यों “ शारीरिक भिन्नता की सीमित सी बुनियाद पर अस्तित्व की विषमता का विशाल वैचारिक ढाँचा”खड़ा हो जाता है.समान परिवेश के बावजूद दोनों का यथार्थ अगर अलग-अलग है तो इस कारण कि “यथार्थ से आशय उस जगत से है जिसे मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा के सिलसिले में अधिकांशतः अनायास, पर यदाकदा सायास रचता है.” इस किताब को पढ़ने के बहुत बाद यकायक इस स्थल पर मैं लौटा और मेरी समझ में आया कि क्यों हम सिर्फ स्त्री-पुरुष के सन्दर्भ में ही नहीं, उच्च जाति-निम्न जाति, हिंदू-मुसलमान के सन्दर्भ में भी ‘पृथकता के मानसिक भूगोल’ को नहीं पहचान पाते. अकसर हम शिकायत करते पाए जाते हैं कि यथार्थ को हमारी तरह ग्रहण और परिभाषित करने में स्त्री की अक्षमता उसकी किसी बुनियादी कमी या जिद का नतीजा है या उसकी हीनता-ग्रंथि है जिससे वह शिक्षा के जरिए आज़ाद हो सकती है.जैसा पहले जिक्र किया जा चुका है, शिक्षा पर लेखक को “नादान भरोसा” नहीं है.शिक्षा का परिवर्तन के उपकरण के रूप में प्रयोग करना एक जटिल सांस्थानिक प्रक्रिया है और वह भी एक मानवीय साधन है.उसके कारगर होने के लिए अन्य सामाजिक अन्य मध्यस्थताओं की आवश्यकता है,अकसर यह भुला दिया जाता है.
शिक्षा है ही क्या और क्यों वह एक कठिन यात्रा या अभ्यास है,उस तरह मजे की चीज़ नहीं जैसा पिछले कुछ समय में मस्ती की पाठशाला जैसे लापरवाह जुमलों ने बताया है. इसका वेदनापूर्ण वर्णन पुस्तक के ‘ताज की कक्षा’ शीर्षक अध्याय में किया गया है.फीरोजाबाद से लौटी कक्षा गली सुबह चूड़ी उद्योग के अपने अनुभव को ज्ञान में बदलने के संकल्प के साथ ताजमहल के मोहक परिवेश में जब बैठती है तब उसे अनुभव होता है कि यात्रा की “कष्टप्रद स्मृतियों और उससे जुड़े कठिन सच को शब्दों के जरिए ज्ञान में तब्दील करना”उतना सरल नहीं है.प्रेम और कोमल भावों के प्रतीक ताज की छाया या रौशनी में फीरोजाबाद की तंग गलियों को याद करना और अपने आगे के जीवन में उसके हस्तक्षेप का स्थायित्व निश्चित करना क्या इतना आसान था?
कक्षा की चुनौती थी अनुभव और ज्ञान के तनाव को साधना. अनुभव अपने आप में ज्ञान नहीं है लेकिन “दोनों एक दूसरे के सन्दर्भ में ही शक्ति पाते हैं.”…. और “ज्ञान का अर्थ है अनुभव की तल्खी से मुक्ति.” लेकिन फीरोजाबाद के अनुभव में यह चुनौती भी थी कि काँच उद्योग के यंत्रणादायक यथार्थ में अपनी भागीदारी को पहचानकर फिर अपने कर्तव्य के बारे में सोचा जाए. कांच इतने गहरे हमारी ज़िंदगी में धँसा है कि उससे कैसेबचा जाए, तय करना मुश्किल है. क्या कांच की चूड़ियाँ न पहनने या कांच के गिलास का इस्तेमाल न करने का संकल्प हमें इस अनुभव की यातना से मुक्त कर देगा क्योंकि उससे जुड़े सवाल तो फिर भी रह ही जाते हैं.
प्रश्न इसलिए अनुभव के तल्खी से आज़ाद होना भर नहीं बल्कि खुद को “गहरे जा कर हिला देने वाले अनुभव को विचार के क्षणों से गुजरने” का मौक़ा देना क्योंकि “इसके बाद हमारे मानस में जन्म लेने वाला ज्ञान कुछ अलग ही आभा और स्फूर्ति लिए होता है.”
फीरोजाबाद के कांच उद्योग से संक्षिप्त मुठभेड़ ही श्रम,शिक्षा और जेंडर के बीच के पेचीदा रिश्तों को उजागर करने के लिए काफी थी.अकसर श्रमिक बच्चों की अनौपचारिक शिक्षा को लेकर सामाजिक उत्साह पाया जाता है. लकिन वह अनुभव कैसा होता है? “इन नन्हें बच्चों के चेहरे जैसे एक सड़क या मैदान बन गए थे जिसपर पूरे शहर और देश में व्याप्त विषमता और दरिद्रता की क्रूरता साक्षात खड़ी थी……मैं जहाँ बैठा था वहाँ सबसे पास बैठी बच्ची अपनी उर्दू की किताब से कुछ पढ़ रही थी….वह अल्लाह से दुआ मांगने की कहानी है…मैंने पूछा, “अगर तुम्हें कहीं अल्लाह मिले तो तुम उनसे क्या जानना चाहोगी?उस बच्ची ने मेरी ओर देखते हुए कहा, “मैं पूछूँगी कि आपने मुझे इतनी गरीबी में क्यों पैदा किया?’ इतना कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे.मैं अवाक देखता रहा और उसका सर नीचे की तरफ झुका होने से आँसू टप-टप की आवाज़ करते हुए सीमेंट के फर्श पर गिरते रहे.”
फीरोजाबाद की उस बच्ची का यह सवाल न जाने कितने नन्हें सीनों में एक घुटी हुई चीख-सा दफ्न पडा है. शिक्षा अल्लाह की जगह आकर क्या इसका समुचित उत्तर दे सकती है और क्या उसे इस गरीबी से निकलने का रास्ता बता सकती है? क्या वह खुदा की तरह यह दावा कर सकती है कि उसकी पनाह में आ जाने के बाद हर राह आसान हो जाती है?
चूड़ी कांच उद्योग का एक उत्पाद है. लेकिन अन्य किसी भी कांच की वस्तु के मुकाबले भारतीय लड़कियों के जीवन में उसका केन्द्रीय स्थान है.लडकी के शारीरिक विखंडन में यह बड़ी भूमिका निभाती है.लेकिन उसका एक दूसरा सिरा भारत की एक बड़ी आबादी को दारिद्र्य को छूता है. चूड़ी पहनने से इन्कार या उसका बहिष्कार क्या किसी लड़की का स्वायत्त निर्णय हो सकता है? मेडोना की कलाइयों में झलने के बाद क्या वह अपनी नकारात्मकता से मुक्त हो जाती है? यह हो भी जाए तो क्या वह गरीबी की उस भयावहता का क्या जिसका कृष्ण कुमार और उनकी कक्षा की लड़कियों ने फीरोजाबाद में अनुभव किया?
कृष्ण कुमार की कठिनाई और बड़ी है. फीरोजाबाद यात्रा से उपजे सवाल उनके और उनकी विद्यार्थियों के लिए एक ही नहीं हैं, “इन लड़कियों के लिए एक ऐसी धार या चुभन है जिसे मैं देख-भर सकता हूँ, स्वयं महसूस नहीं कर सकता.” लेखक का अपनी निरुपायता का अहसास इस यात्रा की मूल्यवान उपलब्धि है क्योंकि इसी के सहारे हम समझ पाते हैं कि शिक्षा विद्यार्थी के अलावा “अध्यापक को भी गढ़ती है.”
अपनी कक्षा में लड़कियों को चूड़ी के सहारे अपने पूरी ज़िंदगी को खंगालते देख लेखक स्त्री होने के उस अकेलेपन को पहचान पाता है जिसे कविता में उसके प्रिय रघुवीर ढाल पाए हैं.शिक्षा को अंततः “स्त्री की अकेली राह की पाथेय” बनने के लिए उसके “अभिमन्युत्व को ध्यान में” रखना होगा.
‘चूड़ी बाज़ार में लड़की’ को आसानी से समाजशास्त्र या शिक्षा शास्त्र या प्रचलित स्त्री विमर्श के किसी एक सुथरे खांचे में डालना न्यायपूर्ण न होगा. इसे पढ़ते हुए जानना आसान है कि क्यों हिंदी में हमारे समाजवैज्ञानिक लिखने हुए अटकने लगते हैं.उनके पास हिंदी का अपना साहित्यिक अनुभव इतना क्षीण है कि वह भाषा अपनी पूरी ताकत और छटाओं के साथ उनकी पकड़ में आती ही नहीं. कृष्ण कुमार की भाषा हर अनुभव को ज्ञानात्मक शब्द दे पाती है, तो इसकी एक वजह उनका समृद्ध साहित्यिक संसार है. यह किताब आखिर करती क्या है? चेतना के दायरे में विस्तार करके एक बरामदा बनाने का काम जिससे स्त्री जीवन के एकाकीपन और श्रम तथा गरीबी के अँधेरे और खुद पुरुष के भीतर के इनसे गाफिल होने की वजह से भीतर जमे अँधेरे में झाँका जा सके.
- जनसत्ता, जनवरी, 2015