इस स्तंभ के लिखे जाने के ठीक पहले यह खबर मिली है कि छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले में ग्यारह से ज़्यादा पुलिस के जवान मारे गए हैं. इस महीने ऐसी हत्याओं की संख्या पचास से अधिक हो गयी है. इसके साथ ही बंगाल के चुनाव में हिंसा के समाचार किसी भी दूसरे राज्य से अधिक मिले हैं.बंगाल की हिंसा में संसदीय राजनीति में भाग लेने वाले एक मार्क्सवादी दल के सदस्य शामिल हैं.संसदीय राजनीति को भटकाव बताने वाले और उसे रणनीतिक रूप से इस्तेमाल करने वाले, दोनों तरह के मार्क्सवादी या माओवादी दलों को हिंसा के अपने इस्तेमाल के जायज़ होने में कोई शक नहीं है.दोहराव का खतरा उठाते हुए नंदीग्राम और सिंगुर में सीपीएम की हिंसा के पक्ष में उसके बुद्धिजीवियों के तर्कों को याद कर लेना उचित होगा.इन तर्कों में एक तर्क रक्षात्मक हिंसा का था. इस बार चुनाव में अपने पक्ष में न होने के लिए सीपीएम ने नंदीग्राम में हत्याएं कीं और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम के समर्थकों को मारा.बंगाल के पिछले एक साल के अखबार को उठा कर देख लें, हिंसा उस समाज के स्वभाव को परिभाषित करती जान पड़ती है.
बंगाल के साथ ही एक दूसरा राज्य केरल है जिसके सामाजिक जीवन को मार्क्सवादी दल ने गहराई से प्रभावित किया है. केरल की खासियत सीपीएम और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं की एक दूसरे के ऊपर की जाने वाली हिंसा की नियमतता है. यह इतनी नियमित है कि अब इस पर कोई अलग से बात भी नहीं करता. केरल के एक नौजवान ने कई साल पहले की उस वीभत्स घटना की याद दिलाई जिसमें आर.एस.एस. से जुड़े एक शिक्षक की तीसरी कक्षा के उसके बच्चों के सामने सीपीएम के लोगों द्वारा ह्त्या की गयी थी और बाद में इसे उचित ठहराया गया था. अगर आप इस जिले में जाएँ तो आपको क्षत -विक्षत अंगों वाले अनेक व्यक्ति मिलेंगे. ये या तो सीपीएम के लोग हैं या आर.एस.एस के.एक पत्रकार मित्र ने सालों पहले की चीन के तिनेमन चौक के छात्र विरोध के दौरान माओ की विशालकाय तस्वीर के ऊपर रंग फेके जाने की घटना पर एस. यु. सी. आई. के नेताओं की प्रतिक्रिया की याद की, जिनका कहना था कि इन छात्रों को इस पापके लिए मौत की सज़ा दे देनी चाहिए
मार्क्सवाद को अपनी विचारधारा मानने वाले दलों को इस पर विचार करना होगा कि हिंसा और ह्त्या उन्हें इतनी जायज़ क्यों लगती है. ऊपर जिनका नाम लिया गया, उनमें से हरेक का ख़याल है कि उसका मार्क्सवाद दूसरे के मुकाबले अधिक शुद्ध है. इस शुद्धता का उनका अभिमान इतना अधिक है कि इसकी रक्षा में अशुद्ध और अधूरे मनुष्यों का सफाया कर देने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती. उनके समर्थक बुद्धिजीवी, जो खून से अपने हाथ गंदे नहीं करते, इसके लिए तर्क गढ़ते हैं. जिस यकीन से वे ये तर्क देते हैं , उससे आप उनके मन के अन्दर जड़ जमाकर बैठी हिंसा की प्रवृत्ति का अहसास किए बिना नहीं रह सकते. इनमें कलाकार भी हैं, लेखक भी और शिक्षक भी.
हिंसा के पक्ष में मार्क्सवादी तर्कों की कमी नहीं है. माओवादी दल, जो भूमिगत रह कर गुरिल्ला ढंग से काम करते हैं , यह तर्क देते हैं कि राज्यसत्ता का दमन इतना अधिक है कि जनता के लिए खुलेआम काम करना संभव ही नहीं है. उनकी हिंसा , इस तरह राजकीय हिंसा का प्रतिकार है. भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास को सरसरी तौर पर देखने पर यह तर्क कमजोर मालूम पड़ता है. हिंसक और सशस्त्र तरीके का चुनाव राजकीय हिंसा के जवाब में नहीं किया गया है. वह राजनीतिक संघर्ष के अपने रूप का निर्णय करते हुए ही कर लिया जाता है. इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि राज्यसत्ता हिंसक नहीं है. कहा सिर्फ यह जा रहा है कि एक ही प्रकार की परिस्थिति में संघर्ष के दो प्रकार के राजनीतिक रूप जन्म ले सकते हैं. इनका जन्म लेना किसी सचेत फैसले का परिणाम होता है. सशस्त्र संघर्ष का निर्णय , भूमिगत होना जिसकी अनिवार्य परिणति है, इस समझ से भी किया जाता है कि जनता में चेतना इतनी नहीं है की वह राज्यसत्ता का गोलबंद होकर विरोध करेगी. हिंसक संघर्ष में जनता की व्यापक भागीदारी की कोई कोशिश भी नहीं की जाती है . यह सशस्त्र संघर्ष घटनाओं का एक सिलसिला होता है. जनता को दरअसल इन घटनाओं के जरिये प्रभावित या आतंकित करने का प्रयास लिया जाता है जिसका मकसद उसे यह बताना है कि राज्य भी उनके आगे बेबस है और इसलिए जनता को उसका प्रभुत्व मान लेना चाहिए. जन अदालतों में दिए गए फौरी न्याय से भी यही सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि बुर्जुआ न्यायवस्था की शिथिलता की जगह यह जनपक्षी चुस्त न्याय प्रणाली है. जाहिर है , यह सब कूछ हमारे मन के किसी कोने में बैठी बदला लेने की अन्तः वृत्ति को तुष्ट करता है. इस निम्न वृत्ति को और उत्तेजित करते रहने के लिए हाथ-पाँव , नाक-कान काटना, किसी को सीधे गोली मारने की जगह उसके पूरे शरीर को अपमानित करना ज़रूरी हो जाता है. गोर्की ने अक्टूबर क्रान्ति के फौरन बाद इस तरह की घटनाओं के लिए सीधे लेनिन को जिम्मेदार ठहराया था और यह कहते हुए उनकी भर्त्सना की थी कि वे मनुष्य की निम्नतम वृत्तियों को सहला कर और उकसा कर उसके बल पर अपने हिंसक प्रभुत्व को बनाए रखना चाहते हैं.
सशस्त्र संघर्ष में जो रोमांच है वह खुली जन गोलबंदी की राजनीति में नहीं हैं. इसमें अधिक पसीना बहाना पड़ता है और यह काफी लंबा और नीरस काम भी है. जनता आपके ‘सही’ विचारों से सिर्फ उनके ‘वैज्ञानिक’ होने के कारण प्रभावित नहीं हो जाती, यह एक अस्वस्तिकर अनुभव है. वह अक्सर ‘गलत’ राजनीति के ‘भुलावे’ में आ जाती है.आखिर इस मूढ़ जनता के भरोसे कितने दिन क्रान्ति को टाला जा सकता है! इसलिए जनता के अगुवे दस्ते का निर्माण किया जाता है जो उसले हक में , सही, वैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर फैसले करता है. विचारों में आगे बढा हुआ यह दस्ता जब ज़मीन के ऊपर आकर काम करता है तो अपनी चमक खो बैठता है. चंद धमाकेदार कारवाईयों से उसकी जो ताकत मालूम पड़ती थी उसकी पोल खुल जाती है. पिछले दिनों भूमिगत रह कर काम करने वाले उन दलों की परिणति देखिये जिन्होंने काफी खून बहाने के बाद अशुद्ध संसदीय राजनीति में भाग लेने का फैसला किया. क्या इस परिणति का डर और अपनी असली ताकत का राज खुल जाने का डर तो नहीं जो क्रांतिकारी दलों को खुली राजनीति में आने से रोकता है?
- विलंबित, जनसत्ता, मई, 2009